आप सभी को राम! राम!
आप सभी को छठ पूजा और दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। छठ माता की जय ।
दीपावली, छठ पूजा, भाई दूज, गोवर्धन पूजा (गोधन) से हम सभी के बचपन की ढेर सारी यादें जुड़ी होती हैं। पित्रिपक्षोपरांत नवरात्र और इन सारे त्योहारों की लड़ी सी लग जाती है। ये त्योहार मुख्यतः बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में धूम-धाम से मनाए जाते हैं। ज़िंदगी की आपा-धापी में पिछले कई वर्षों से छठ पूजा में गाँव जाना सम्भव नही हो पाता। दीपावली बीतते ही, इस साल छठ पूजा से जुड़ी एक-एक छोटी-बड़ी यादें कौंधने लगी। तरह तरह के फलों, ठेकुआ, chiura, चीनी की चासनी (पाग) से बने रंग बिरंगी हाथी, घोड़े, चिड़िया, पियरी, चुनरी, कलश और उसमें जलता हुआ दीपक, सुपेली इत्यादि बाँस से बीना हुआ दउरा, में भरकर पोखरा किनारे छठ माता के स्थान पे गीत गाते हुए जाना। ५-६ सुंदर, सीधे गन्नों को एक साथ लेके जाना। हल्की कोहरे वाली शरत ऋतु की सुबह जब सारा वातावरण ओस की बूँदों से नम हो, पूजा के सारे समान से भरा दऊर सर पे उठा के लेके जाना। ये तमाम यादें आँखों के सामने घटित होती दिख रही थी। दाउरा सर पे उठाए, नंगे पाँवो में, घास पे ठहरी ओस की बूँदों की ठंडक मै महसूस कर पा रहा था।
इतनी सारी यादों के बीच छठ मैया के वो गीत कैसे याद ना आता? तो मैंने झट से yutube पे छठ मैया के गीत सर्च कर डाले और youtube ने छठ मैया के सैकड़ों गीतों की एक लिस्ट मेरे सामने रख दी और फिर क्या था – जो सबसे पहला गीत था वो चला दिया। वो पहला गीत गाया था, हमारी भोजपुरी लोकगीतों की शान पद्मभूषण और पद्मश्री से सम्मानित, स्वर कोकिला श्रीमती शारदा सिन्हा ने । मै एक के बाद एक गीत सुनता गया । youtube द्वारा प्रस्तावित उन तमाम गीतों के बीच, मेरी नज़र एक गीत के शीर्षक पर ठहर गयी। शीर्षक था – “डोमिनिया”। शीर्षक पढ़ते ही, इससे पहले की मै इसे youtube पर प्ले करता, अचानक से इस गीत के धुन मेरे दिमाग में बजने लगे। हालाँकि ये गीत मै पहली बार नही सुन रहा था, लेकिन इस बार के सुनने के बाद, इस गीत की पंक्तियों ने मुझे सोचने पे मजबूर कर दिया। इससे पहले की मै अपने विचार व्यक्त करूँ, उस गीत की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं —
ये गीत आप यूटूब पे सुन सकते हैं – गीत सुनिए
दूधे पुते भरी गइलू हो
छठी माई के बिनलू दऊरबा
सांचों ये डोमिन तरी गईलू हो
तोहरे दऊरबा में फल फूल जाला
तोहरे सिपुलिया से अरघ दियाला
तरी गईलू ए डोमिन तरी गईलू
भव से उतर गईलू हो
छठी माई के बिनलू दऊरबा
सांचों ये डोमिन तरी गईलू
तोहरा के लोग झूंठे कहेला असुध हो
के बाटे तोहरा से दुनिया में सुध हो
तरी गईलू ये डोमिन तरी गईलू
संचाहु सवर गईलू हो
छठी माई के बिनलू दऊरबा
सांचों ये डोमिन तरी गईलू
इन पंक्तियों ने मुझे, मेरी यादों में चल रही छठ पूजा वाली ट्रेन की डिब्बे से उठा के, छठ पूजा से पहले की जाने वाली सारी तैयारियों वाले डिब्बे में डाल दिया।
अगले ही क्षण मै बच्चों के साथ मिलकर गन्ने के खेत से सबसे सीधी, लम्बी और अच्छे गन्ने चुन रहा था। अम्मा, पापा से बोली है की – केहू के भेज के डोमिनिया के बोलवा देतीं। जी हाँ, “डोमिनिया” को बुलाना है ताकि अम्मा बता सके की इस बार कितने दऊरे , सूप या सूपेली चाहिए – छठ मैया की पूजा के लिए। ये वही डोमिनिया है जो शायद अछूतों की श्रेणी में भी आख़िरी पायदान पे खड़े होते हैं। [ये मेरा मत नही है बल्कि ऐसा बचपन से देखते और सुनते आ रहे हैं] अगर वो इतने ही अछूत हैं तो ऐसे शुभ और पवित्र कार्य में उनकी बनायी हुई वस्तु (दाउरा, सूप, इत्यादि) का इतना महत्व क्यूँ? इस उदाहरण को लेकर जब मै, हमारे सारे त्योहारों, शुभ, अशुभ हर प्रकार के अवसरों का एक-एक करके विश्लेषण करने लगा तो पाया की ब्राह्मण समाज का कोई भी कार्य सूद्र वर्ण के लोगों के बिना सम्भव नही है। जहां नवरात्रि में माली का लाया हुआ फूल और माला माता जी को चढ़ाया जाता है वहीं, विवाह की मांगलिक कार्यों की शुरुआत में नगाड़ा एक चमार ही बजाएगा। दूल्हे का मौर [जिसके बिना विवाह ही सम्पन्न नही होता] वही डोमिनिया बना के लाएगी। चैत्र की नवरात्रि के आस पास [गेहूं के बवाग] के समय “जई” भाट देके जाएगा और हम उसे एक आशीर्वाद की तरह अपने कान में लगा के रखते हैं। यह शुभ माना गया है। दीपावली अथवा हर प्रकार के शुभ अशुभ अवसरों पे कुम्हार के हाथों से बनें मिट्टी बर्तन को ही शुद्ध माना गया है।
इन सब उदाहरण को देखने से पाता चलता है की समाज में सभी वर्णो का समान महत्व है। इससे ज़्यादा अच्छे से ये बात हमें हमारे पूर्वज नही समझा पाते। अछूतों के प्रति दुर्व्यवहार या उनको इज़्ज़त ना देना, कभी भी हमारे पूर्वजों का उद्देश्य नही रहा होगा। समय के साथ परिवर्तन के बिना, रीतियाँ, परम्पराएँ धीरे धीरे कुरितियों में बदल जाती हैं । ऐसा मै नही, बल्कि स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने भागवत् गीता में कहा है। जहां तक रही बात उनसे छुआ-छूत की – तो वो पूर्णतः वैज्ञानिक कारणों से किया गया हो सकता है । इन लोगों के कार्य करने की प्रकृति की वजह से साफ़ सफ़ाई की कमी का होना हो सकता है। उदाहरण के तौर पर मै “चमार” जाति को लेता हूँ। मुख्यतः ये लोग मरे हुए जानवरों से चमड़े निकालने और उनसे अलग अलग तरह की वस्तुएँ बनाना – जैसे की जूते, चप्पल, ढोलक, नगाड़ा, मृदंग, इत्यादि। आमतौर पर देखा गया है की इन लोगों गाँव के दक्षिण दिशा में बसाया जाता था ताकि इनके चमड़े के कार्य की दुर्गंध पूरे गाँव में न फैले और दूसरे लोगों को तकलीफ़ ना हो क्यूँकि ऐसा माना जाता है की दक्षिण से उत्तर की दिशा में हवाओं का चलना, लगभग असम्भव होता है।
आप क्या सोचते हैं इस बारे में? आप लोगों के विचार सुनने का इच्छुक हूँ। आप मेरे विचारों से असहमत हो सकते हैं। कृपया खुले विचारों के साथ अपनी असहमति या सहमति व्यक्त कर सकते हैं 🙂
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