एक छोटी सी कविता
बड़े भाइयों की इकलौती छोटी बहन है मेरी माँ | ज़ाहिर है परिवार की सबसे लाड़ली है मेरी माँ ||
सारी सुख सुविधाओं सहित नाजों से पली-बढ़ी है मेरी माँ | नाना नानी की सबसे दुलारी थी मेरी माँ ||
सरकारी ऊँचे पदों पे कार्यरत थे मेरे नाना और सारे मामा पर, आज भी कागजों पर अंगूठा लगाती है मेरी माँ ||
आज बुढ़ापे के इस दौर में कुछ पढ़ लिख नहीं सकती मेरी माँ | ज्यादातर वक़्त हमारी और हमारे बच्चों की परवरिश में बिताती है मेरी माँ ||
ये कहानी सिर्फ एक माँ की नहीं है। ये दास्ताँ है उन तमाम महिलाओं की है, जिनको परिवार में शिक्षा का बराबर का हक़ नहीं मिलता।
ये अन्याय समाज की अनगिनत माताओं, बहनों के साथ हुआ है और बड़े दुःख के साथ ये कहना और लिखना पड़ रहा है की अभी भी हुए जा रहा है।
उन सारी माताओं, बहनों के साथ हुए इस अन्याय का जिम्मेदार कौन है ? ये समाज? पिता? भाई? पति? या फिर हम सब? यहाँ हम सब वो माताएं भी शामिल हैं जिन्होंने अपनी बेटी को शिक्षित करने में कोई योगदान नहीं दिया।
कभी किसी और बेटे को अपनी माँ के लिए ऐसा सोचना और लिखना ना पड़े – यही माँ सरस्वती से यही करबद्ध प्रार्थना है।
कैसी विडम्बना है ये, जिस धर्म समाज में सर्वज्ञान प्रदान करने वाली अदि-शक्ति स्वयं एक स्त्री हैं – माँ सरस्वती। सारा ब्रह्माण्ड माँ सरस्वती से ज्ञान प्राप्त करता है। उसी समाज में हमारी माताएं बहनें मूलभूत शिक्षा से भी वंचित हैं।
संस्कृत का एक श्लोक याद आ रहा हैं मुझे :
नारी अस्य समाजस्य कुशलवास्तुकारा अस्ति।
अर्थ:
महिलाएं समाज की आदर्श शिल्पकारा होती हैं।
क्या हम चाहते हैं हमारे समाज का शिल्पकारा अशिक्षित हो ? शायद नहीं।
एक विचार यूँही इस हफ्ते के लिये। ज़रा सोचियेगा ।
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