जेठ की दुपहरी में पीपल के पेड़ के नीचे के खेले जाने वाले खेलों को स्मार्टफोन निगल रहा है |
कंचे, कबड्डी, गिली-डंडा, ओल्हा-पाती, भद-भद, गौबडौला ये तमाम सारा खेल लुप्त हो रहा है|
मेरा गाँव अब मर रहा है
नीम के पेड़ के नीचे वाली पलानी, जहां पड़ोस के काका, बाबा, चाचा जेठ की दुपहरी अपनी चौपाल लगाते थे, अब स्मृतियों से भी जा रहा है |
इससे भी ज्यादा दुःख इस बात का है, कि उसके जाने का अफसोस तक कोई नहीं कर रहा है
मेरा गाँव अब मर रहा है |
वैसे तो काली माता के मंदिर में अच्छे टाइल्स, दरवाजे लग गए हैं। खुश था मै देखकर। बाबा, लाला जी , चाची, बड़की माई, काकी, काका भी अब डोलची लेके मंदिर जाते कम दिखते और परसादी में चीनी, गुड़ खाने के लिए बच्चों की वो भीड़ भी गायब हो रही है। फिर दुःख से कहना पड़ता है
मेरा गांव अब मर रहा है।
गांव के पर्याय “खेत खलिहान” से खलिहान गायब हो रहा ह। खलिहानों में गांजे गए पुवालो के ढेर और उस पे खेलते बच्चे गायब हो रहे है। कहते हैं मेरा गांव विकास कर रहा है लेकिन सही मायने में
मेरा गांव अब मर रहा ह।
सवाल बस मन में ये उठता है की क्या इन सब के साथ विकास संभव नहीं है? क्या हमारे विकास की परिभाषा बदल गयी गई है ? जहाँ से मै देखता हूँ हमारे पूर्वज, ऋषि मुनि विकास की उस पराकाष्ठा पे थे जिसकी कल्पना मात्र असंभव है। कहीं न कहीं हमारे विकास की परिभाषा ही बदल दी गयी। एक व्यक्तिगत विचार जो बारम्बार सोचने पे मजबूर करता है ।
Very nice poetry
Excellent poetry on villages
Wow nice man👍🏻